शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

हे केशव, माधव, हे मोहन,



हे केशव, माधव, हे मोहन, कुछ दया अनुग्रह बरसाओ,

खल दुर्जन का उत्पात बढ़ा, मत मानवजन को तरसाओ,
मत तरसाओ गोविन्द की अब, यह पाप सहन न होता है,
अवलोक दशा इस धरती की, मन भीतर भीतर रोता है,
मानव ने मानवता छोड़ी, हाँ छोड़ दिया कब का ही शरम,
यह बीते युग की बात हुई, जब मिलता था कर्मो में धरम,
अब तो केवल नर मिलते है, अबला के तन को खाने को,
नारी की दशा भी कहाँ सही, व्याकुल कायासुख पाने को,
जो मुल्ला पंडित बने हुए, वो ही दुनिया को छलते हैं,
जो सीधे साधे मानव हैं, यह देख देख बस जलते हैं,
गर चक्र में तेरी धार बची, तो पूर्णः चलाओ हे गिरिधर,
रोष कोप कुछ दिखलाओ, हिय पामर का कापें थर-थर,

वरना मानव में ज्ञान भरो,  इस जाती का कल्याण करो,
द्वापर बीते युग बीत गए, इस युग का अब अवतार धड़ो,
यह पीड़ा यह संताप देख, निर्धन का घोर  विलाप देख,
कुछ यहीं देव बन बैठे हैं, ज़रा उनका तेज़ प्रताप देख,
फिर तूही कहना ईश मेरे, क्या व्यर्थ प्रलाप ये मेरा है,
तुने ही कहा था हे कृष्णा, “हर रात के बाद सवेरा है

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