हे केशव, माधव, हे मोहन, कुछ दया – अनुग्रह बरसाओ,
खल – दुर्जन का उत्पात बढ़ा, मत
मानवजन को तरसाओ,
…मत तरसाओ गोविन्द की अब, यह पाप सहन न होता है,
अवलोक दशा इस धरती की, मन भीतर – भीतर रोता है,
…
मानव ने मानवता छोड़ी, हाँ छोड़ दिया कब का ही शरम,
यह बीते युग की बात हुई, जब मिलता था कर्मो में
धरम,
…
अब तो केवल नर मिलते है, अबला के तन को खाने को,
नारी की दशा भी कहाँ सही, व्याकुल कायासुख पाने को,
…
जो मुल्ला – पंडित बने हुए, वो ही दुनिया को
छलते हैं,
जो सीधे – साधे मानव हैं, यह देख – देख बस जलते हैं,
…
गर चक्र में तेरी धार बची, तो पूर्णः चलाओ हे
गिरिधर,
रोष – कोप कुछ दिखलाओ, हिय पामर का
कापें थर-थर,
…
वरना मानव में ज्ञान भरो, इस जाती का कल्याण
करो,
द्वापर बीते युग बीत गए, इस युग का अब अवतार धड़ो,
…
यह पीड़ा यह संताप देख, निर्धन का घोर
विलाप देख,
कुछ यहीं देव बन बैठे हैं, ज़रा उनका तेज़ –
प्रताप देख,
…
फिर तूही कहना ईश मेरे, क्या व्यर्थ प्रलाप ये
मेरा है,
तुने ही कहा था हे कृष्णा, “हर रात के बाद सवेरा है”
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