रविवार, 23 दिसंबर 2012

क्रिसमस का ये प्यारा त्यौहार 
जीवन में लाए खुशियाँ आपार 
सांता आये आपके द्वार 
शुभकामना हमारी करें स्वीकार




                रात रोशन है पूरी जवानी लेकर ,

                चाँद तारों से भरी कहानी लेकर |

                जश्न का मौसम है आओ नाचे गायें,

                बादल आ गए हैं दूर से पानी लेकर |

                जिद ठान के बैठ गया मेरा बच्चा ,

                नानी दादी की कहानी लेकर |

                हर घडी हर आँगन यहाँ फिर से महकेगा ,

                आ रही हूँ मैं भी रात की रानी लेकर |



सब तो है मेरे पास !

न जाने ये कैसी उलझन है, 


न जाने ये कैसी कश्मकश है, 


न जाने कौन सा ये गम है, 


जिसके सामने हजारो खुशियाँ फीकी पड़ जा रही है।


जवाब शायद मैं जनता हूँ। 


पर फिर भी नजाने क्यों, 


मै अपने आप से इतने सवाल कर रहा हूँ।


ये तेरी कमी का एहसास है, जो बेचैनी बन कर मेरे सिने में उतरती जा 

रही है।


सब तो है मेरे पास ! 


पर फिर भी क्यों मै अपने आपको इतना तनहा महसूस कर रहा हूँ।


आज चलते चलते मेरे कदम उसी बताशे के ठेले पर जा रुके।


वो टिक्की और बताशे की भीनी सी खुशबू में छिपी तेरी याद ने मुझे बाँध 

सा दिया था।


जब बतासे वाले ने पत्तल मेरी ओंर बढाया,


तो उस कोरे पत्तल में तेरी याद को जिन्दा पाया।


मन में बस यही ख़याल आया,


अगर तुम साथ होती तो उस पत्तल को अपनी उँगलियों से पोंछ कर मुझे 

देती।


अगर तुम साथ होती तो कहती की, 'भईया बताशे में प्याज लगा देना'। 


अगर तुम साथ होती तो कहती की , 'अरे भईया मटर थोडा कम डालो'। 


इन्ही यादो में ही खोया था कि अचानक खांसी आ गई, 


अनायास आई उस खांसी ने भी तेरी कमी का एहसास करा दिया ।


अगर तुम होती तो अपने हाथो से मेरी पीठ को सहलाने लगती । 


गले में चुभती उस खांसी कि तरह ये अकेला पन भी मेरी जिन्दगी में 

चुभ सा रहा था। 


आँखों में तेरी याद आंसू बन कर छलक उठh। 


उन बताशो कि तरह मेरी जिन्दगी भी बेस्वाद सी 

कभी तो मेरे दर से गुजर

ऐ हवा कभी तो मेरे दर से गुजर,
देख कितनी महकी यादें संभाली हैं मैंने,
संग तेरे कर जाने को,
हवा हो जाने को।

ऐ बहार कभी तो इधर भी रुख कर,
देख कई गुलाब मैंने भी रखे थे कभी,
किताबों में मुरझाने को,
पत्ता-पत्ता हो जाने को।

ऐ चाँद थोड़ी चाँदनी की इनायत कर,
कई छाले मैंने भी सजा कर रखे हैं,
बेजान बदन तड़पाने को,
रूह का दर्द छिपाने को।

ऐ चिराग घर में कुछ तो रोशनी कर,
कई बार आशियाँ जलाया है मैंने,
उजाला पास बुलाने को,
अँधेरा दूर भगाने को।

ऐ शाम ना जा, ज़रा कुछ देर ठहर,
अक्सर रात को पाया है मैंने,
तन्हाई मेरी मिटाने को,
दोस्त कोई कहलाने को।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

kabhi dharm ke name pe..


kabhi dharm ke name pe...
Kabhi jaat ke name pe...
Kaiyo ne mujhko loot liya...
Mene foota nasib manke...
Har bar hi apna sir pit liya....


Kabhi liya pita ka saya... 

Kabhi maa ko chhin liya...
Kabhi ujad di god meri...
Kabhi suhag ko mere loot liya....


kabhi bachpan chhin liya....
Aur kabhi chat li jawani...
Jaroorat thi sahare hi...
Tab jawan beta chhin liya...


Nirih bhav se dekhta me...
Sabse sath mera chhoot gaya...
Sab kuchh saha yaha mene.. 

Aur jate jate yahi kaha mene...

Nirdayi hatho kat li hoti....
Aur sharmsar hoti manavta...

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन ?


माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन ?

हाय ! कितना प्यारा सा था गुड्डा गुडिया खेला करती थी मैं,

 बारात सजाया करती थी मैं

 फुलवारी में घूम घूम कर तितली सी डोला करती थी मैं

 फुदक फुदक कर पेड़ पे चढती कोयल सी कूका करती थी मैं

झूला चढ़कर पेंग बढाकर कुछ गुनगुनाया करती थी मैं

 कल ही की तो बात है ये तुमने खूब सजाया था मुझको

सब सखियों ने मिलकर हल्दी का उबटन खूब लगाया था मुझको

 बहला बहला कर हँसा हँसा कर पहले डोली पर बिठलाया था मुझको

फिर खुद ही रो रोकर खूब रुलाया था मुझको

दूसरा ही दिन है आज अचानक ही बहुत बड़ी हो गयी हूँ मैं

 गुडिया से अब भाभी, चाची  और न जाने क्या क्या बन गयी हूँ मैं

देखो ना ! सच माँ ! मुझको ये बिल्कुल नहीं भाता फिर से मुझको पास बुला लो फिर से गुड्डा 

गुडिया खेलूँगी मैं

 तितली सी उड़ कर फिर से कोयल की बोली बोलूँगी मैं

हाय! कितनी तरस रही हूँ मैं

 फिर से वापस आने को बता दो कौन हो तुम मेरी माँ या मेरी दुश्मन


 माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन !!!!

रविवार, 16 दिसंबर 2012

हो लाल मेरी पत रखियो



ओ हो
हो हो हो
हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण
ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण
सिंदड़ी दा सेवण दा
सखी शाह बाज़ कलन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दम दम दे अन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पैला न.म्बर
हो लाल मेरी -२

चार चराग़ तेरे बरण हमेशा -३
पंजवा मैं बारण आई बला झूले लालण
हो पंजवा मैं
पंजवा मैं बारण आई बला झूले लालण

सिंदड़ी दा सेवण दा
सखी शाह बाज़ कलन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दम दम दे अन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पैला न.म्बर
हो लाल मेरी -२

हिंद सिंद पीरा तेरी नौबत बाजे -३
नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालण
हो नाल बजे
नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालण

सिंदड़ी दा सेवण दा
सखी शाह बाज़ कलन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दम दम दे अन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पैला न.म्बर
हो लाल मेरी -२

ओ हो
हर दम पीरा तेरी ख़ैर होवे -३
नाम-ए-अली बेड़ा पार लगा झूले लालण
हो नाम-ए-अली
नाम-ए-अली बेड़ा पार लगा झूले लालण

सिंदड़ी दा सेवण दा
सखी शाह बाज़ कलन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दम दम दे अन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पैला न.म्बर
हो लाल मेरी -२

हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण
सिंदड़ी दा सेवण दा
सखी शाह बाज़ कलन्दर
दमादम मस्त कलन्दर

अली दम दम दे अन्दर
दमादम मस्त कलन्दर
अली दा पैला न.म्बर

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

खुदा ने दिया है यह नज़राना।


खुदा ने दिया है यह नज़राना। 

जीयें उसे कैसे, यह एक सवाल है?
 
प्रकृति का यह उपहार बेमिसाल है,
 
हो रहा है दोहन, इसका इतना,
 
जीवन पर आ पड़ी है कैसी विपदा?
 

जल जीवन का आधार है,
 
जल बिन यह जीवन निराधार है,
 
रोक कर प्रदूषण को,
 
वातावरण को स्वच्छ बनाना है।
 

जो वायु जीवन देती है,
 
उसे युगों तक कायम रखना है
 
न काटो इन दरख्तों को,
 
जो छाया तुमको देते हैं।
 

भरते हैं ये पेट तुम्हारा,
 
पशुओं का भी पालन करते हैं,
 
करके ग्रहण ये CO2,
 
हमारे जीवन को मधुर बनाते हैं।
 

न उजाड़ो इन वनों को,
 
जो प्राकृतिक आपदा से बचाते हैं,
 
रोक कर वर्षा का जल,
 
भूमि का जल-स्तर बढ़ाते हैं।
 

आज इन्हें बचाओगे तो,
 
कल जीवन भी बच जाएगा
 
दिख रहा है जो भविष्य खतरे में,
 
खतरे से बाहर आ जाएगा।
 

लगाकर पेड़ ज्यादा से ज्यादा
 
हमें इस जमीं को सजाना है
 
पूज्यनीय है यह प्रकृति,
 
इस संजीवनी को बचाना है।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

हमें तो भूल जाने का सलीका आया।















तेरे बि‍न, जब ढल गया था दि‍न
सांझ को ढ्लने का सलीका आया।
चांद की बाहों में रोया था आसमां
तारों को जलने का सलीका आया।
सूख गये थे सब अरमां पलकों पर
आसूं को लुढकने का सलीका आया।
यूं तो मायूसी ही मि‍ली थी अक्‍सर
तेरे बि‍न जीने का सलीका आया ।
कफस को छोड के रूह रूकसत हुई
यूं कफन पहनाने का सलीका आया।
संवेदनाओं की उम्‍मीदों ने लूटा मुझे
इकराक से जीने का सलीका आया।
कभी याद कर लेना फुरसत में हमें

http://sohankharola.blogspot.com



रविवार, 25 नवंबर 2012




क्यूँ आज   में  दुखी  हूँ ,
मुझे गम किसका सता रहा है
उस मोड़ पर जहाँ अँधेरा  छाया है,
क्यूँ मुझे वोह डरा रहा है
क्यूँ ऊंचाइयाँ  मेरे मुल्क की,
मुझे खोखली दिखाई दे रही हैं,
क्यूँ वोह जो गहरा अंदर समां रहा है
वोह है मेरी जमी का दिल
जो  आज दुःख मना रहा है,
नोच रहे हैं ज़माने वाले,
हर एक अपना जीवन  सवांर रहा है
मेरे मुल्क का क्या होगा ऐ जन..
मेरा भारत दुखी है ,...दुःख मना रहा है.


प्यार के बुत को ये जमाना तोड़ देता है


















वफा की चाह कैसी दिल में लिये फिरते हो

अब तो चाँद भी फिजां को छोड़ देता है

कहाँ की दोस्ती है कौन निभाने वाला

बुझा के प्यास वो घड़ा फोड़ देता है

कसूर किसका कहें कौन गुनहगार यहाँ

शाम को साया भी छोड़ देता है

इशारे पर उसके ये सांस चलती है

एक लम्हे में हर रुख को मोड देता है

कैसे जज्बात किसकी आरजू में हो मरते

प्यार के बुत को ये जमाना तोड़ देता है ……

शनिवार, 24 नवंबर 2012

खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर







खिची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर 
अबूझ, अचूक, कुछ स्पष्ट और कुछ धुंधली सी,
एक लक्ष्मण रेखा वह है

जो खिंची थी सीता के कुटिया के द्वार
,
शिष्टाचार
, लोकाचार या लक्ष्मण का व्यवहार,
क्यों न समझ पाया जानकी का हृदय
,
कि अंतहीन अँधेरा है उस पार
,
इस ओर पिंजरा है सुनहरा
,
हैं घर द्वार
 , और रिश्तों का कारोबार,
और सामने से आ रही है रौशनी कि चमकार
,
जो दूर से चुंधिया रही है सीता के नयनो को
,
पर क्या बीच की खाई कभी कर पायेगी वह पार
,
एक और लक्ष्मण रेखा है जिसे पाया था द्रौपदी ने
,
कृष्ण की मैत्री और अर्जुन के प्रेम में
,
और उस रेखा के पांच सिरों से बिंधी थी कृष्णा
,
हर दिन बंटती रही पन्च हिस्सों में
,
धर्मराज के धर्म
, भीम के बल और 
अर्जुन के शौर्य से गहराती रेखा
,
रेखा जो विस्तृत हुई दुशाशन के हाथो तक
,
दुर्योधन के मिथ्याभिमान और
 
भीष्म के मौन तक
,
रह गयी एक सिरे पर अपने प्रश्नों के साथ

छली हुई द्रौपदी
, 
एक रेखा है जिसे पाया था तसलीमा नसरीन ने
,
लांघना चाहती थी जो संस्कारों और
 'लज्जा' की दहलीज़,
क्यों मुखर हुआ मौन सह न पाया है समाज कदाचित
,
रेखा जिसके एक सिरे पर है

दबी
, कुचली, मौन अबला की छवि,
जो भाती है समाज के ठेकेदारों को
,
और दूसरा सिरा जा पहुंचा भटकता
 
इस देश से उस देश
,
ठोकर
, फतवे और शरण के 
पत्थरों से सजे किनारों को
, 
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर
,
और मैं ढून्ढ रही हूँ अपनी लक्ष्मण रेखा
,
जो शायद अस्पष्ट है और धुंधली भी है
!

मन की वेदना





















ये व्याकुल वकुल के फूलों पर भ्रमर मरता पथ घूम-घूम कर

आसमान में ये कैसी सुगबुगाहट वायू मे भी एक फुसफुसाहट

ये वनांचल भी पुलकित होकर झूमे ये भ्रमर भी पथ भूलकर घूमे

ये मन वेदना सुमधुर होकर खुश है आज   में बहकर

वंशी में है तानपुरी सी माया ये कौन है जो मेरे मन को चुराया

ये निखिल विश्व भी मरे घूम-घूम कर और मै मरुँ विरह सागर के तट पर 


इस पार प्रिये तुम हो



मुझे उस पार…. नहीं जाना ………..क्योंकि इस पार …

मैं तुम्हारी संगिनी हूँ ……..उस पार निस्संग जीवन है

स्वागत के लिए ……………इस पार मैं सहधर्मिणी
कहलाती हूँ ……..मातृत्व सुख से परिपूर्ण हूँ………………..
माता – पिता है …..देवता स्वरुप …….पूजने के लिए
उस पार मै स्वाधीन हूँ ………पर स्वाधीनता का
रसास्वादन एकाकी है……….. गरल सामान……..
इस पार रिश्तों की  पराधीनता  मुझे ……………….
सहर्ष स्वीकार है…………इस पार प्रिये तुम हो