शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

कुछ क्षणिकाएं!


नादान

बचपन में पापा कहते थे

समझ न सका तब,था बचपन,

पापाजी ने जब समझाया

समझ गया है मेरा मन,

पैसे पेड़ों पर नहीं उगते हैं/

लोकतंत्र

लोकतंत्र,जनता के लिए

जनता के द्वारा जन शासन,

नाना से माता तक आया

अब बारी पोते कि आयी

बेटे का असमय हुआ निधन/

कालाधन

बार बार प्रश्न उठता था,

कैसे बनाया काला धन,

कई दिनों से सोच रहा था

क्या कोल खदानों में रक्खा था ?

जो करवा रहे अवैध खनन/

कलयुगी रावण

लूले लंगड़े बहुत परेशां है

हो गये उनके अंग गबन,

शामिल उनके दर्द हुआ तो,

देखा जुल्मी इक रावण,

दस शीश ग्रीवा पर रख घूम रहा था,

सर्वोच्च दिखी उसकी  गर्दन/

विडम्बना

समाचार पढ़ा अखबारों में,

होंगे करोड़पति लाखों कल को,

मै सोच रहा था मन ही मन,

लिख देता इक यह भी पंक्ति,

और करोड़ों होंगे निर्धन/

कांग्रेस

अंतिम साँसे बुढिया की,

छूटे प्राण तो करूँ दफ़न,

जीवन बिताया कैसों संग,

ग्रसित बीमारियों लगा ग्रहण,

हुस्न दीवाने फिर भी थामे,

बेशर्मी के ये सम्बन्ध,

मन बस इक अभिलाषा है,

छूटे साथ ओढा दूँ कफ़न/

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