शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

जैसा खाइए अन्न वैसा रहे मन ....

खाना तो संजीवनी है जीवन के लिए  लेकिन खाने का तरीका होना चाहिए |
खा खा के जो शारीर पर चर्बी चदाये  दुःख और बीमारी का शारीर को घर बनाये ||


जैसा खाइए अन्न वैसा रहे मन .....,का शरीर से बड़ा

घनिष्ठ सम्बन्ध है प्रत्यक्ष में सभी प्रकार के कार्य हमारी इन्द्रियाँ
ही करती हैं और उनका संचालनकर्ता या राजा मन को माना जाता है .इसलिए
मानसिक विचारों का प्रभाव शरीर पर सदैव पड़ता है.हमारा भोजन भी इससे पृथक
नही है, " गीता " में भी भोजन के सात्विक,राजसिक व तामसिक होने का वर्णन
है ., जिस प्रकार भोजन का प्रभाव शरीर पर पड़ता है उसी प्रकार मन के
विचारों और उसकी अवस्था का प्रभाव भोजन पर भी पड़ता है.किसी प्रकार की
उत्तेजना,आवेश,क्रोध या मानसिक हलचल की अवस्था में किया गया भोजन ठीक तरह
से नही पचता न उससे उचित लाभ शरीर को मिल पाता है बल्कि उल्टा हानि होना
संभव है., जो लोग भोजन की अच्छाई-बुराई, शुद्ध-अशुद्ध होने के विषय में
जरूरत से ज्यादा शंका करते हैं वे स्वयं ही शरीर को हानि पहुँचाने का
कारण बनते हैं.इस प्रकार की मानसिक स्थिति से अच्छे पदार्थ का भी शरीर पर
नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है., भोजन करते समय किसी विचार या समस्या पर
मस्तिष्क केन्द्रित करने से शरीर का रक्त मस्तिष्क की तरफ दौड़ने लगता हैi ग्रंथियों में रक्त की कमी होने से पाचक रसों का स्राव कम हो
जाता है.इस कारण भोजन देर से या अधूरा पचता है ., बहुत बार देखने में
आता है की पवित्र व धार्मिक जीवन जीने वाले लोग सभी जगह भोजन करने से
परहेज करते हैं ..हालाँकि इस सनातन पवित्र व्यवस्था ने विकार रूप ले लिया
लेकिन इसके मूल में भोजन के स्रोत का अन्याय या पाप की कमाई से जुड़े
होने से बचना ही है., भोजन हमारे तन और मन को अपेक्षित उर्जा दे इसी
कारण धर्मग्रंथों में एकाग्रचित होकर करने का आदेश दिया गया है .भोजन
करते समय मन का अन्य विषयों में भटकना हानिकारक है ....

                                                        http:sohankharola.blogspot .com

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