गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

गाँधी: एक शख्शियत, एक विचार


‘गांधी’ एक ऐसा नाम है जिसे लेते ही चर्चा बर्फ की ढलान पर लुढ़कने वाली बर्फ की गेंद बन जाती है, जितना आगे बढती है उतनी ही विशाल होती चली जाती है। मुझे हमेशा ही उनका व्यक्तित्व और उनका जीवन आकर्षित करता रहा है मैं बार-बार अपने मन में इस चरित्र से वैमनस्य जगाने की कोशिश करता हूँ और बार-बार मुझे इसी चरित्र से आकर्षण या कहूँ स्नेह होता जाता है।
गांधी जी का पूंजीपतियों से साथ रहना और उनके हितों की बात करना सर्वहारा वर्ग को थोडा अखर सकता है लेकिन गांधी जी के विचार एकांगी कभी नहीं थे इस बात को मानने से भी हमें परहेज बिलकुल नहीं करना चाहिए। यदि वे पूंजीवादी हितों के समर्थक थे तो निश्चित रूप से आजीवन वे दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए भी संघर्षरत रहे। गांधीजी स्वाधीनता संग्राम के दौरान अकेले ऐसे आन्दोलनकारी थे जिन्होंने धर्म, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। साम्यवाद और पूँजीवाद दोनों ही परस्पर विपरीत विचारधाराएँ हैं और दोनों में से कोई भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है। लेकिन यदि दोनों के बीच का एक संतुलित मार्ग पूरी ईमानदारी से खोजा जाए तो निश्चय ही एक आदर्श राज्य की नीव पड़ेगी और शायद गांधीजी ऐसे ही एक आदर्श राज्य की परिकल्पना मन में संजोये थे जिसे उन्होंने रामराज का नाम दिया था। दुर्भाग्यवश उनकी परिकल्पनाए साकार रूप नहीं ले सकीं क्योंकि इससे पहले कि वे रामराज का एक सम्पूर्ण खाका खींच पाते नेहरु और जिन्ना की महत्वाकांक्षाओं ने गांधीजी को ही निगल लिया। यही विडम्बना है हमारे देश की कि ये मझधार से तो निकल आया लेकिन किनारे पर डूब गया।
गांधी जी का आर्थिक दर्शन ना तो पूरी तरह से पूंजीवादी है और ना ही पूरी तरह से साम्यवादी। वे जब पूँजीवाद के हितों की बात करते हैं तो निश्चय ही उनके जेहन में भारत के अतुलनीय नव-निर्माण, नव-सृजन और नयी वैज्ञानिक उन्नति की तस्वीर होती होगी और जब वे सर्वहारा और दलित वर्ग की बात करते हैं तो जरूर उनके जेहन में भारत के हर निवासी को मिलने वाली शिक्षा, औषधि, रोजगार और उन्नति के संसाधन की समुचित व्यवस्था की योजनायें उभरती होंगी। ऐसी एक व्यवस्था में पूँजीवाद और साम्यवाद एक दूसरे के परस्पर विरोधी खेमे नहीं बल्कि सहायक और अनिवार्य अंग होंगे।
अहिंसा और स्वदेशी का उनका विचार भी इसी संतुलन का महत्वपूर्ण और अनिवार्य घटक है। लोग राष्ट्र और समाज के हित में उतना ही अधिक सोच सकेंगे जिंतना उनके विचार अहिंसक होंगे क्योंकि शान्ति और सद्भाव का यही सबसे अच्छा रास्ता है। स्वदेशी का विचार लोगों में अपने उत्पादों और अपने लोगों में विश्वास पैदा करेगा और साथ ही साथ राष्ट्रवाद को ज्यादा से ज्यादा बल भी प्रदान करेगा।
आजकल तो गांधी जी के विरोध की बहार आई हुई है। बहती गंगा है जो हाथ ना धोये उसे मलाल होने की पूरी सम्भावना है और हम हिन्दुस्तानी ऐसा कोई मौका नहीं गंवाते। मुझे तो आश्चर्य होता है कि कुछ लोग तो गांधी जी के बारे में कुछ भी नहीं जानते फिर भी उनसे नफरत करने की बात कहते हैं। वैसे मैं यहाँ सिर्फ उन लोगों की बात करूंगा जिनके पास गांधी जी से नफरत करने के पुख्ता कारण और सुबूत हैं। ऐसे आलोचक पहले गांधी जी के घोर विरोधियों के विचारों से अवगत होते हैं फिर उसमे वे अपने तर्क-वितर्क और कुतर्क जोड़ना शुरू कर देते हैं और ये भी भूल जाते हैं कि उन्हें गुण और दोष दोनों पर सामान दृष्टिपात करना है, परिणामस्वरूप उन्हें हर जगह गांधीजी में दोष निकालना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य लगने लगता है और हिन्दुस्तानी थोडा भी सेंटीमेंटल हो जाए तो फिर कर्तव्यपरायणता में उसका तो कोई सानी हो नहीं सकता।
वर्तमान समय में भी गांधीजी के विचार पूरी तरह से प्रासंगिक हो सकते हैं बशर्ते हम पूरी ईमानदारी से काल, परिस्थिति और उपयोगिता को ध्यान में रखकर सकारात्मक परिवर्तनों के साथ उन्हें अमल में लायें और संतुलन के उस सिद्धांत को वास्तविकता में परिणित करने की कोशिश करें जिसे गांधी जी साकार करना चाहते थे। इसमें कोई शक नहीं कि आज हमारे बीच गांधीजी से भी बेहतर सोच रखने वाले लोग होंगे; तो अच्छा यही होगा कि वे आगे आयें और गांधीजी के अधूरे विचारों को पूर्णता प्रदान करें अथवा सिरे से खारिज कर एक नवीन, सर्वहितवादी एवं सर्वमान्य विचारधारा को अमली जामा पहनाये, क्योंकि राष्ट्र को दिशा गांधीजी को गरियाने से नहीं मिलेगी बल्कि राष्ट्रवाद को सम्मानपूर्वक बढ़ाने से मिलेगी।
                      http://sohankharola.blogspot.com

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