खिची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर
अबूझ, अचूक, कुछ स्पष्ट और कुछ धुंधली सी,
एक लक्ष्मण रेखा वह है
जो खिंची थी सीता के कुटिया के द्वार,
शिष्टाचार, लोकाचार या लक्ष्मण का व्यवहार,
क्यों न समझ पाया जानकी का हृदय,
कि अंतहीन अँधेरा है उस पार,
इस ओर पिंजरा है सुनहरा,
हैं घर द्वार , और रिश्तों का कारोबार,
और सामने से आ रही है रौशनी कि चमकार,
जो दूर से चुंधिया रही है सीता के नयनो को,
पर क्या बीच की खाई कभी कर पायेगी वह पार,
एक और लक्ष्मण रेखा है जिसे पाया था द्रौपदी ने,
कृष्ण की मैत्री और अर्जुन के प्रेम में,
और उस रेखा के पांच सिरों से बिंधी थी कृष्णा,
हर दिन बंटती रही पन्च हिस्सों में,
धर्मराज के धर्म, भीम के बल और
अर्जुन के शौर्य से गहराती रेखा,
रेखा जो विस्तृत हुई दुशाशन के हाथो तक,
दुर्योधन के मिथ्याभिमान और
भीष्म के मौन तक,
रह गयी एक सिरे पर अपने प्रश्नों के साथ
छली हुई द्रौपदी,
एक रेखा है जिसे पाया था तसलीमा नसरीन ने,
लांघना चाहती थी जो संस्कारों और 'लज्जा' की दहलीज़,
क्यों मुखर हुआ मौन सह न पाया है समाज कदाचित,
रेखा जिसके एक सिरे पर है
दबी, कुचली, मौन अबला की छवि,
जो भाती है समाज के ठेकेदारों को,
और दूसरा सिरा जा पहुंचा भटकता
इस देश से उस देश,
ठोकर, फतवे और शरण के
पत्थरों से सजे किनारों को,
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर,
और मैं ढून्ढ रही हूँ अपनी लक्ष्मण रेखा,
जो शायद अस्पष्ट है और धुंधली भी है!
एक लक्ष्मण रेखा वह है
जो खिंची थी सीता के कुटिया के द्वार,
शिष्टाचार, लोकाचार या लक्ष्मण का व्यवहार,
क्यों न समझ पाया जानकी का हृदय,
कि अंतहीन अँधेरा है उस पार,
इस ओर पिंजरा है सुनहरा,
हैं घर द्वार , और रिश्तों का कारोबार,
और सामने से आ रही है रौशनी कि चमकार,
जो दूर से चुंधिया रही है सीता के नयनो को,
पर क्या बीच की खाई कभी कर पायेगी वह पार,
एक और लक्ष्मण रेखा है जिसे पाया था द्रौपदी ने,
कृष्ण की मैत्री और अर्जुन के प्रेम में,
और उस रेखा के पांच सिरों से बिंधी थी कृष्णा,
हर दिन बंटती रही पन्च हिस्सों में,
धर्मराज के धर्म, भीम के बल और
अर्जुन के शौर्य से गहराती रेखा,
रेखा जो विस्तृत हुई दुशाशन के हाथो तक,
दुर्योधन के मिथ्याभिमान और
भीष्म के मौन तक,
रह गयी एक सिरे पर अपने प्रश्नों के साथ
छली हुई द्रौपदी,
एक रेखा है जिसे पाया था तसलीमा नसरीन ने,
लांघना चाहती थी जो संस्कारों और 'लज्जा' की दहलीज़,
क्यों मुखर हुआ मौन सह न पाया है समाज कदाचित,
रेखा जिसके एक सिरे पर है
दबी, कुचली, मौन अबला की छवि,
जो भाती है समाज के ठेकेदारों को,
और दूसरा सिरा जा पहुंचा भटकता
इस देश से उस देश,
ठोकर, फतवे और शरण के
पत्थरों से सजे किनारों को,
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर,
और मैं ढून्ढ रही हूँ अपनी लक्ष्मण रेखा,
जो शायद अस्पष्ट है और धुंधली भी है!
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