सोमवार, 17 दिसंबर 2012

माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन ?


माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन ?

हाय ! कितना प्यारा सा था गुड्डा गुडिया खेला करती थी मैं,

 बारात सजाया करती थी मैं

 फुलवारी में घूम घूम कर तितली सी डोला करती थी मैं

 फुदक फुदक कर पेड़ पे चढती कोयल सी कूका करती थी मैं

झूला चढ़कर पेंग बढाकर कुछ गुनगुनाया करती थी मैं

 कल ही की तो बात है ये तुमने खूब सजाया था मुझको

सब सखियों ने मिलकर हल्दी का उबटन खूब लगाया था मुझको

 बहला बहला कर हँसा हँसा कर पहले डोली पर बिठलाया था मुझको

फिर खुद ही रो रोकर खूब रुलाया था मुझको

दूसरा ही दिन है आज अचानक ही बहुत बड़ी हो गयी हूँ मैं

 गुडिया से अब भाभी, चाची  और न जाने क्या क्या बन गयी हूँ मैं

देखो ना ! सच माँ ! मुझको ये बिल्कुल नहीं भाता फिर से मुझको पास बुला लो फिर से गुड्डा 

गुडिया खेलूँगी मैं

 तितली सी उड़ कर फिर से कोयल की बोली बोलूँगी मैं

हाय! कितनी तरस रही हूँ मैं

 फिर से वापस आने को बता दो कौन हो तुम मेरी माँ या मेरी दुश्मन


 माँ तुमने क्यों छीना मेरा बचपन !!!!

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