बुधवार, 27 अगस्त 2014

विरासत की एक झलक

विरासत की एक झलक

उत्तराखंड का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाति का। यहाँ कई शिलालेख, ताम्रपत्र व प्राचीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जिससे गढ़वाल की प्राचीनता का पता चलता है। गोपेश्नर में शिव-मंदिर में एक शिला पर लिखे गये लेख से ज्ञात होता है कि कई सौ वर्ष से यात्रियों का आवागमन इस क्षेत्र में होता आ रहा है। मार्कण्डेय पुराण, शिव पुराण, मेघदूत व रघुवंश महाकाव्य में यहाँ की सभ्यता व संस्कृति का वर्णन हुआ है। बौधकाल, मौर्यकाल व अशोक के समय के ताम्रपत्र भी यहाँ मिले हैं। इस भूमी का प्राचीन ग्रन्थों में देवभूमि या स्वर्गद्वार के रूप में वर्णन किया गया है। पवित्र गंगा हरिद्वार में मैदान को छूती है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों में वर्णित यही मायापुर है। गंगा यहाँ भौतिक जगत में उतरती है। इससे पहले वह सुर-नदी देवभूमि में विचरण करती है। इस भूमी में हर रूप शिव भी वास करते हैं, तो हरि रूप में बद्रीनारायण भी। माँ गंगा का यह उदगम क्षेत्र उस देव संस्कृति का वास्तविक क्रिड़ा क्षेत्र रहा है जो पौराणिक आख्याओं के रूप में आज भी धर्म-परायण जनता के मानस में विश्वास एवं आस्था के रूप में जीवित हैं। उत्तराखंड की प्राचीन जातियों में किरात, यक्ष, गंधर्व, नाग, खस, नाथ आदी जातियों का विशेष उल्लेख मिलता है। आर्यों की एक श्रेणी गढ़वाल में आई थी जो खस (खसिया) कहलाई। यहाँ की कोल भील, जो जातियाँ थी कालांतर में स्वतंत्रता प्राप्ति के बात हरिजन कहलाई। देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यात्री के रूप में बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आये उनमें से कई लोग यहाँ बस गये और उत्तराखंड को अपना स्थायी निवास बना दिया। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी यहाँ रहने लगे। मुख्य रूप से इस क्षेत्र में ब्राह्मण एवं क्षत्रीय जाति के लोगों का निवास अधिक है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद हरिद्वार, उधमसिंह नगर एवं कुछ अन्य क्षेत्रों को मिलाने से अन्य जाती के लोगों में अब बढोत्री हो गई है। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धरातल पर यदि कहीं समाजवाद दिखाई देता है तो वह इस क्षेत्र में देखने को मिलता है इसलिए यहाँ की संस्कृति संसार की श्रेष्ठ संस्कृतियों में मानी जाती है। सातवीं सदी के गढ़वाल का एतिहासिक विवरण प्राप्त है। 688 ई0 के आसपास चाँदपुर, गढ़ी (वर्तमान चमोली जिले में कर्णप्रयाग से 13 मील पूर्व ) में राजा भानुप्रताप का राज्य था। उसकी दो कन्यायें थी। प्रथम कन्या का विवाह कुमाऊं के राजकुमार राजपाल से हुआ तथा छोटी का विवाह धारा नगरी के राजकुमार कनकपाल से हुआ इसी का वंश आगे बढा

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